नियति में था जिसके उड़ना
वो भी बांधी गई
कभी अपनों के हाथों
कभी गैरों से वो काटी गई।
बन्धनमुक्त हो जब वो उड़ी
इस स्वच्छंद आकाश में
सर उठा के उसने भी ये सोचा
आज आज़ादी की रात है।
हवा के एक झोंके से
जो लड़खड़ाए उसके कदम
इल्म हो चला उसको था
बचे हैं आखिरी कुछ क्षण।
जाते जाते ही सही पर
वह बात हमको इक सिखला गई
बेहतर आज़ादी का है एक पल
इस गुलामी के संसार से।