है ऐतबार ख़ुद पर
उम्मीद दिल में लिए फिरती हूँ
सजा के अधूरे सपने इन आँखों में
सारी-सारी रात जगा करती हूँ।
ख़्वाब से हक़ीक़त
हक़ीक़त से फिर कुछ नए ख़्वाब बुनती हूँ
कोरे कागज़ पर हर रोज़
कुछ नए रंग भरती हूँ।
हाँ मैं औरत हूँ और औरत होने का
हर फर्ज़ अदा करती हूँ
बख़ूबी निभाती हूँ सारे किरदार
बस कहीं उसमें ख़ुद को ढूंढा करती हूँ।